Thursday, May 13, 2010

"जेठ की सुबह"

1.मंजिल की ...
 ना रही
अब  जुस्तजू
मुझको....


राह-ए-संगदिल....
आप सा मिल गया है ,
अब तो...


2.सुबह की राह्जोई है
 रात...



मरी नहीं...


बस सोई है
 रात...

3.पर ...

किसी किसी की रात,
ऐसे सो जाती है..

कि.....
सपने भी सो जाते हैं,

और  बस ...
जेठ की सुबह ही
हिस्से में आती है...

Monday, December 28, 2009

"चांदनी के भ्रम में "

चाँद को अपना समझ..
गलत आवाज़ दे बैठा,
चांदनी के भ्रम में.

उसके पास भी उधार है
वो तो ...
सूरज से ले रखी है,
इस जनम के लिए.

Tuesday, August 18, 2009

~"वीसा" की डोर से बंधी~

वो आई थी

एक बार फ़िर ,

मियाद बढ़वाने

मेरे भारत महान में ,

लोकशाही की साँसों की....

"आमार सोनार " से तो

उसका मोह टूट गया था ,

पर "गीता" की कर्मभूमि में

वो ढूढती है आ-आ कर ,

आज भी अपनों को ?

पर "वीसा" के डोर से बंधी

ये सांसे भी अब टूटने वाली है,

अधिकारों की बातें करता

संविधान अपना ,

लगता अब जाली है ....

Monday, December 29, 2008

"उम्मीद की सेंक"

रात रोज आती ...
जोगी का फेरा लगाती,
सिरहाने ...
सपनो के दीप जलाती,
तकिए के पास ....
उम्मीद की सेंक सुलगा,
नई सुबह की ...
आश जगा जाती.

Friday, July 18, 2008

"लगन "

चाँदी के तारों-सी लहरे
और रेशम-सा मन ,
भोर का तारा एक जुलाहा
सपने बुनने की लगन ...

Friday, March 14, 2008

"कुछ यूं ही ..."

1.उन कदमों तले आज सभ्यता कसमसा रही थी,
वो पापा के साथ काकटेल पार्टी में जा रही थी..

----इन पंक्तियों में मैंने 'बेटी' या 'पिता' के माध्यम से लिंग विशेष के उपर दोषारोपण नहीं किया है.. इनके माध्यम से आधुनिकता के दौर में ह्रास होते सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की और इंगित किया है .. लिंग भेद से जोड़कर इसे ना देखे ... यहाँ प्रतीक में बेटी की जगह बेटा और मां या पिता कोई भी हो सकता है...

2.सारी रात 'दिया' जलता रहा उसकी रोशनी का लिए ,
और वो दीवानावार था जुगनुओं की चांदनी के लिए...

Wednesday, March 12, 2008

"पकती रही एक रोशनी की आस "

अंतहीन थी निराशा
घुप्प अँधेरे का जाल,
नीरवता से कहता रहा
दिल का हाल
जुगनू पकड़ता रहा
सारी रात.

व्यथा को सुलगाते
आँखों को बहलाते ,
अगले ही पल
वो खो जाते .

उनकी उष्मा बटोरती
ओस से गीली
मेरी साँस ,
सुबह तक रहा
उन जुगनुओं का साथ ,
पकती रही
एक रोशनी की आस .