Tuesday, June 12, 2007

अज्ञॆय जी की एक अनोखी रचना से मैं रू-बरू हुआ आज.....
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सो रहा है झोंप अंधियारा नदी की जांघ पर
डाह से सिहरी हुयी वह चॉदनी
चोर पैरों से उलझकर झांक जाती है.

प्रस्फ़ुटन के दो क्षणो का मोल शेफ़ाली
विजय की धूल पर चुपचाप
अपने मुग्ध प्राणों से
अजाने ऑक जाती है.

Monday, June 4, 2007

'उन लम्हों की खातिर'

अपनी मौत नहीं
उसकी खुशियॉ मांगे,
जिसके सांसों की
खुश्बू
आज भी है ,
सांसों में
आती-जाती
यादें उसकी
सांसों की.
वो जो
दो कदम
साथ चले थे,
नये मायने मिले
ज़िन्दगी को.
शुक्रिया
उन लम्हों की खातिर,
जो हसीन थे
दोनो के लिए.