रात रोज आती ...
जोगी का फेरा लगाती,
सिरहाने ...
सपनो के दीप जलाती,
तकिए के पास ....
उम्मीद की सेंक सुलगा,
नई सुबह की ...
आश जगा जाती.
Monday, December 29, 2008
Friday, July 18, 2008
Friday, March 14, 2008
"कुछ यूं ही ..."
1.उन कदमों तले आज सभ्यता कसमसा रही थी,
वो पापा के साथ काकटेल पार्टी में जा रही थी..
----इन पंक्तियों में मैंने 'बेटी' या 'पिता' के माध्यम से लिंग विशेष के उपर दोषारोपण नहीं किया है.. इनके माध्यम से आधुनिकता के दौर में ह्रास होते सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की और इंगित किया है .. लिंग भेद से जोड़कर इसे ना देखे ... यहाँ प्रतीक में बेटी की जगह बेटा और मां या पिता कोई भी हो सकता है...
2.सारी रात 'दिया' जलता रहा उसकी रोशनी का लिए ,
और वो दीवानावार था जुगनुओं की चांदनी के लिए...
वो पापा के साथ काकटेल पार्टी में जा रही थी..
----इन पंक्तियों में मैंने 'बेटी' या 'पिता' के माध्यम से लिंग विशेष के उपर दोषारोपण नहीं किया है.. इनके माध्यम से आधुनिकता के दौर में ह्रास होते सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की और इंगित किया है .. लिंग भेद से जोड़कर इसे ना देखे ... यहाँ प्रतीक में बेटी की जगह बेटा और मां या पिता कोई भी हो सकता है...
2.सारी रात 'दिया' जलता रहा उसकी रोशनी का लिए ,
और वो दीवानावार था जुगनुओं की चांदनी के लिए...
Wednesday, March 12, 2008
"पकती रही एक रोशनी की आस "
अंतहीन थी निराशा
घुप्प अँधेरे का जाल,
नीरवता से कहता रहा
दिल का हाल
जुगनू पकड़ता रहा
सारी रात.
व्यथा को सुलगाते
आँखों को बहलाते ,
अगले ही पल
वो खो जाते .
उनकी उष्मा बटोरती
ओस से गीली
मेरी साँस ,
सुबह तक रहा
उन जुगनुओं का साथ ,
पकती रही
एक रोशनी की आस .
घुप्प अँधेरे का जाल,
नीरवता से कहता रहा
दिल का हाल
जुगनू पकड़ता रहा
सारी रात.
व्यथा को सुलगाते
आँखों को बहलाते ,
अगले ही पल
वो खो जाते .
उनकी उष्मा बटोरती
ओस से गीली
मेरी साँस ,
सुबह तक रहा
उन जुगनुओं का साथ ,
पकती रही
एक रोशनी की आस .
Tuesday, January 22, 2008
चंद एक त्रिवेणियां.............
1.भूख से मरा था वो इसी चौराहे पर,
आज सत्ता के इस बदरंग दोराहे पर,
लाल-सलाम का विजय-जुलूस निकला है.
2.खुदा का ठेकेदार मैं खुदा हूँ
सबसे ऊपर और जुदा हूँ,
तुम्हारी सांसे मैं तय करूंगा.
आज सत्ता के इस बदरंग दोराहे पर,
लाल-सलाम का विजय-जुलूस निकला है.
2.खुदा का ठेकेदार मैं खुदा हूँ
सबसे ऊपर और जुदा हूँ,
तुम्हारी सांसे मैं तय करूंगा.
Tuesday, January 1, 2008
"विजयी होगा अभिमन्यु"
गत वर्ष हिंदी अंतर्जाल की एक पत्रिका में मैंने यह कविता लिखी थी .. आज नए वर्ष की नई चुनौतियों से रू-बरू होने पर इन पंक्तियों की फिर याद आयी .....
हर मोड़ पर
उलझा
अभिमन्यु मरता है
रोज़.
उम्र के साथ
बुज़ुर्ग हो गये हैं भीष्म,
बातें आदर्श की
निष्ठा की,
पर साथ
दुर्योधन का
शकुनी का,
जिनकी गिरफ़्त में है
सारा धर्म, ये समाज।
गद्दी पर आसीन
जरासंध
धृतराष्ट्र,
मत करो अब
कृष्ण का इन्तजार।
अभिमन्यु ही तोड़ सकता है,
ये चक्रव्यहू,
धर्म के ठेकेदारों का
इन्द्रजाल
धर्म के महाभारत का।
मुट्ठी भर पांडव
बिखरे बन्द महलों में,
करते कॄष्ण का इन्तज़ार.
द्रौपदी की लाज़
सुदामा की इज़्जत
सरे आम लगती बोली
रोज चौराहों पर
कृष्ण नहीं हैं कहीं।
कॄष्ण ने तब भी नहीं दिया था
साथ
अभिमन्यु का
मत करो
उसका इन्तजार।
चाहिए अब
एक नहीं
सात-सात अभिमन्यु.
एक साथ एकजुट
टूटेगा चक्रव्यहू,
चाहिए
समग्र चेतना
नव नेतृत्व ,
अपने सामर्थ्य पर
विजयी होगा अभिमन्यु
अब इस बार।
हर मोड़ पर
उलझा
अभिमन्यु मरता है
रोज़.
उम्र के साथ
बुज़ुर्ग हो गये हैं भीष्म,
बातें आदर्श की
निष्ठा की,
पर साथ
दुर्योधन का
शकुनी का,
जिनकी गिरफ़्त में है
सारा धर्म, ये समाज।
गद्दी पर आसीन
जरासंध
धृतराष्ट्र,
मत करो अब
कृष्ण का इन्तजार।
अभिमन्यु ही तोड़ सकता है,
ये चक्रव्यहू,
धर्म के ठेकेदारों का
इन्द्रजाल
धर्म के महाभारत का।
मुट्ठी भर पांडव
बिखरे बन्द महलों में,
करते कॄष्ण का इन्तज़ार.
द्रौपदी की लाज़
सुदामा की इज़्जत
सरे आम लगती बोली
रोज चौराहों पर
कृष्ण नहीं हैं कहीं।
कॄष्ण ने तब भी नहीं दिया था
साथ
अभिमन्यु का
मत करो
उसका इन्तजार।
चाहिए अब
एक नहीं
सात-सात अभिमन्यु.
एक साथ एकजुट
टूटेगा चक्रव्यहू,
चाहिए
समग्र चेतना
नव नेतृत्व ,
अपने सामर्थ्य पर
विजयी होगा अभिमन्यु
अब इस बार।
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