Tuesday, January 22, 2008

चंद एक त्रिवेणियां.............

1.भूख से मरा था वो इसी चौराहे पर,
आज सत्ता के इस बदरंग दोराहे पर,

लाल-सलाम का विजय-जुलूस निकला है.

2.खुदा का ठेकेदार मैं खुदा हूँ
सबसे ऊपर और जुदा हूँ,

तुम्हारी सांसे मैं तय करूंगा.

Tuesday, January 1, 2008

"विजयी होगा अभिमन्यु"

गत वर्ष हिंदी अंतर्जाल की एक पत्रिका में मैंने यह कविता लिखी थी .. आज नए वर्ष की नई चुनौतियों से रू-बरू होने पर इन पंक्तियों की फिर याद आयी .....


हर मोड़ पर
उलझा
अभिमन्यु मरता है
रोज़.

उम्र के साथ
बुज़ुर्ग हो गये हैं भीष्म,
बातें आदर्श की
निष्ठा की,
पर साथ
दुर्योधन का
शकुनी का,
जिनकी गिरफ़्त में है
सारा धर्म, ये समाज।

गद्दी पर आसीन
जरासंध
धृतराष्ट्र,
मत करो अब
कृष्ण का इन्तजार।

अभिमन्यु ही तोड़ सकता है,
ये चक्रव्यहू,
धर्म के ठेकेदारों का
इन्द्रजाल
धर्म के महाभारत का।

मुट्ठी भर पांडव
बिखरे बन्द महलों में,
करते कॄष्ण का इन्तज़ार.

द्रौपदी की लाज़
सुदामा की इज़्जत
सरे आम लगती बोली
रोज चौराहों पर
कृष्ण नहीं हैं कहीं।

कॄष्ण ने तब भी नहीं दिया था
साथ
अभिमन्यु का
मत करो
उसका इन्तजार।

चाहिए अब
एक नहीं
सात-सात अभिमन्यु.

एक साथ एकजुट
टूटेगा चक्रव्यहू,
चाहिए
समग्र चेतना
नव नेतृत्व ,
अपने सामर्थ्य पर
विजयी होगा अभिमन्यु
अब इस बार।