1.उन कदमों तले आज सभ्यता कसमसा रही थी,
वो पापा के साथ काकटेल पार्टी में जा रही थी..
----इन पंक्तियों में मैंने 'बेटी' या 'पिता' के माध्यम से लिंग विशेष के उपर दोषारोपण नहीं किया है.. इनके माध्यम से आधुनिकता के दौर में ह्रास होते सामाजिक पारिवारिक मूल्यों की और इंगित किया है .. लिंग भेद से जोड़कर इसे ना देखे ... यहाँ प्रतीक में बेटी की जगह बेटा और मां या पिता कोई भी हो सकता है...
2.सारी रात 'दिया' जलता रहा उसकी रोशनी का लिए ,
और वो दीवानावार था जुगनुओं की चांदनी के लिए...
Friday, March 14, 2008
Wednesday, March 12, 2008
"पकती रही एक रोशनी की आस "
अंतहीन थी निराशा
घुप्प अँधेरे का जाल,
नीरवता से कहता रहा
दिल का हाल
जुगनू पकड़ता रहा
सारी रात.
व्यथा को सुलगाते
आँखों को बहलाते ,
अगले ही पल
वो खो जाते .
उनकी उष्मा बटोरती
ओस से गीली
मेरी साँस ,
सुबह तक रहा
उन जुगनुओं का साथ ,
पकती रही
एक रोशनी की आस .
घुप्प अँधेरे का जाल,
नीरवता से कहता रहा
दिल का हाल
जुगनू पकड़ता रहा
सारी रात.
व्यथा को सुलगाते
आँखों को बहलाते ,
अगले ही पल
वो खो जाते .
उनकी उष्मा बटोरती
ओस से गीली
मेरी साँस ,
सुबह तक रहा
उन जुगनुओं का साथ ,
पकती रही
एक रोशनी की आस .
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