अज्ञॆय जी की एक अनोखी रचना से मैं रू-बरू हुआ आज.....
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सो रहा है झोंप अंधियारा नदी की जांघ पर
डाह से सिहरी हुयी वह चॉदनी
चोर पैरों से उलझकर झांक जाती है.
प्रस्फ़ुटन के दो क्षणो का मोल शेफ़ाली
विजय की धूल पर चुपचाप
अपने मुग्ध प्राणों से
अजाने ऑक जाती है.
Tuesday, June 12, 2007
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6 comments:
रचना बहुत सुंदर है...भाव अत्यंत गूढ़ है...
आप भी तो बहुत अच्छा लिखते है,
सुनीता(शानू)
daah se sihri hui chaandni...chaandni se sheetal kuch nahi aur use bhi daah...chor pairon se aana to khub suna tha lekin yahaan ulajhna...waah! agyeyji ke yahi chote se shabdoon ka khel bada sundar aur majedaar hota hai...
Doc saab, thanks for this...aaj ka din bahut sundar jaayega ab..raatri ke tisre prahar main aise chor pairon me ulajhker is kavita ko smaraN kar jaa rahi hun...
Shukriya,
swati
Bahut hi sundar, shabd aur bhav, bahut achha laga padhkar, dhanyawad !!
u have written very nicely......anita
डाह से सिहरी हुयी वह चॉदनी
चोर पैरों से उलझकर झांक जाती है.
wah.......
bahut sundar rachna se
roobaroo karaayaa..dost...
dhanyavaad
s-snah
gita pandit
अग्येय जी की रचना जो पढ़ता और समझता है वह निश्चय हीआपकी रचना में भी कम प्रभाव नहीं । बधाई स्वीकारें सम्मान का अधिकारी है ।
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