नवीन सागर की इस गाँधी वादी रचना से मेरी मुलाक़ात यहाँ के स्थानीय दैनिक अख़बार--अमर उजाला-के आखर पन्ने पर हुई .मैंने सोचा की आप सब को भी रूबरू करूं बेमिसाल पंक्तियों से ------
जिसने मेर घर जलाया
उसे इतना बड़ा घर देना
कि बाहर निकलने को चले
पर निकल ना पाए
जिसने मुझे मारा
उसे सब देना
मृत्यु ना देना
जिसने मेरी रोटी छीनी
उसे रोटियों के समुद्र मे फ़ेकना
तूफ़ान उठाना
मै नहीं मिला उनसे मिलवाना
मुझे इतनी दूर छोड़
कि बराबर संसार मे आता रहूं।
इस चिट्ठे पर प्रकाशित सभी रचनाओं का प्रतिलिप्याधिकार डा.रामजी गिरि के पास सुरक्षित है। इनके पुनर्प्रकाशन हेतु लेखक की लिखित अनुमति आवश्यक है -डा.रामजी गिरि
Tuesday, November 27, 2007
Saturday, November 24, 2007
साँझ गुलाबी सी"
कभी लगता है
उगी है ओस की बूंदे
दिल की ज़मीं पर ,
या
कर रही अठखेलियाँ
किरणे सुबह की
उजास उमंग लहरों पर.
कभी लगता है
भ्रम तो नहीं ये मिलना
जैसे आसमां और ज़मीं
मिलते है रोज़
उस क्षितिज पर.
कभी लगता है
तेरा मेरा मिलना
है जैसे मिल रही
नदी सागर से ,
या
है यह इक
साँझ गुलाबी सी
दिन और रात
मिलते जहा पर ..
उगी है ओस की बूंदे
दिल की ज़मीं पर ,
या
कर रही अठखेलियाँ
किरणे सुबह की
उजास उमंग लहरों पर.
कभी लगता है
भ्रम तो नहीं ये मिलना
जैसे आसमां और ज़मीं
मिलते है रोज़
उस क्षितिज पर.
कभी लगता है
तेरा मेरा मिलना
है जैसे मिल रही
नदी सागर से ,
या
है यह इक
साँझ गुलाबी सी
दिन और रात
मिलते जहा पर ..
Sunday, November 18, 2007
"अनबूझ प्यास"
ना जाने कैसी है
सदियों से
अनबूझ
ये प्यास तुम्हारी,
जड़ - चेतन
जीवित स्पंदन से
सदा आलोड़ित
धरा हमारी,
फिर भी
अनंत व्योम में
किस मारीचिका की
तलाश है तुम्हारी .
हैरान है
इस बौद्धिक खेल से
अब तक मानवता सारी,
पर
चांद-तारों पर टिकी है
अब नज़र तुमहारी
उनके चैन छिनने की
अब है बारी.